बचपन से हम बहुत सी जादू की कहानियां सुनते आये हैं, जिनमें कुछ ऐसी जगहों के क़िस्से होते हैं, जहां से एक कदम आगे जाने वाला या तो म”र जाता है या जो पीछे मुड़कर देखता है वह पत्थर की मूर्ति बन जाता है.

ऐसे ही वास्तविक दुनिया में, अगर किसी इलाक़े को यह दर्जा हासिल हो सकता है, तो वह पाकिस्तान में अफ़ग़ानिस्तान की सीमा से लगा हुआ ख़ैबर दर्रा है. जहां से अफगानिस्तान जाने और वहां से आने वालों को रास्ते से गुज़रने के लिए अफरीदी क”बाइलि’यों को नज़राना देना पड़ता था, यहां तक कि दुनिया पर विजय प्राप्त करने वाले म’हा’न वि’जे’ता’ओं को भी यहां अपना सिर झुकाना पड़ा.

लगभग सभी इतिहासकारों ने अफरीदी क”बी”लों के बारे में लिखा है कि ये वो मु’सी’ब’त हैं जो जं”ग से प्यार करते हैं और उनका यही प्यार उनके दु”श्म’न की सबसे बुरी हा”र का कारण बनता है.

विदेशी और स्थानीय लेखक इस बात से सहमत हैं कि ख़ैबर दर्रे पर जितने ह”म’ले हुए हैं, उतने हमले शायद ही दुनिया के किसी रास्ते या राजमार्ग पर हुए होंगे.

दुनिया का ये मशहूर ख़ैबर दर्रा पेशावर से 11 मील की दूरी पर बने ऐ”तिहा”सिक द्वार ‘बाब-ए-ख़ै”बर’ से शुरू होता है और यहां से लगभग 24 मील यानी तो”रख”म के स्थान पर पाकिस्तान और अ”फ़ग़ानि”स्तान की सीमा पर ख़त्म होता है. जहां से लोग डू”रंड रेखा को पार करके अ”फगानि”स्तान में प्रवेश करते हैं.

बाब-ए-ख़ैबर और तो”रखम के बीच का यह क्षेत्र बुरी नी”यत से आने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए इतने ख”तरों से भरा हुआ है जिसकी मि”सा’ल कहीं और नहीं मिलती है. यही वजह है कि दुनिया और इस इलाक़े में विजेता कहलाने वाला कोई शा”सक इस द”र्रे और यहां रहने वालों को काबू में नहीं कर सका.

ख़ैबर दर्रे की भौगोलिक और जंगी स्थिति
इस रास्ते के दोनों ओर करीब डेढ़ हजार फीट ऊंची पहाड़ी चट्टानें हैं और इनके बीच में गु”फा’ओं की भू’ल भु”लैया हैं. यहां के लोगों के लिए यह दर्रा एक ऐसी प्राकृतिक घेराबंदी है जिसे दुनिया के किसी भी जं”गी हथियार से नहीं जीता जा सकता है.

इसका सबसे ख”तरनाक हिस्सा ऐतिहासिक अ”ली म”स्जि’द का इ’ला’क़ा है जहां दर्रा इतना सं”करा हो जाता है कि इसकी चौड़ाई केवल कुछ मीटर रह जाती है.

यही वह स्थान है जहां पहाड़ की चोटियों पर छिपे कुछ ही क़”बाइली सैकड़ों फीट नीचे से गुजरते हजारों सै”निकों के लिए क”यामत ब”रपा देते थे और उन्हें पीछे हटने के लिए मजबूर कर देते थे. यहां तक कि उन्हें श”व उठाने के लिए भी क़”बाइ”लियों की बात माननी पड़ती थी.

‘मौ”त की घा”टी का द्वार’
पेशावर शहर से चंद किलोमीटर दूर स्थित जमरूद तहसील में बने इस द्वार को अगर दु”श्मन के लिए मौ”त की घाटी का द्वार कहा जाये, तो गलत नहीं होगा.

इस द्वार से ही पूरे ख़ैबर दर्रे की अहमियत का पता चलता है. इस द्वार का निर्माण पूर्व राष्ट्रपति फी’ल्ड मा’र्श’ल अयूब खान के शा’स’न’का’ल के दौरान किया गया था. जून 1963 में इस द्वार का निर्माण पूरा हुआ. द्वार का निर्माण उस समय के कैंबलपुर (वर्तमान में अटक) के दो मिस्त्रियों गामा मिस्त्री और उनके भतीजे सादिक मिस्त्री ने किया था.

करीब दो साल में इसका निर्माण पूरा हुआ. द्वार पर लगे बहुत से शिलालेखों पर उन शासकों और आ”क्रमणका”रियों के नाम लिखे हैं, जिन्होंने इस मार्ग का इस्तेमाल किया है.

इस द्वार के पास ही सिख ज’न’र’ल हरि सिंह नलवा ने पानी के जहाज की तरह दिखने वाले किले का निर्माण कराया था, ताकि ख़ैबर दर्रे पर नजर रखने के लिए यहां सै’नि’कों को तैनात किया जा सके. इस क्षेत्र की अधिकांश आबादी अफरीदी क़ा’बि’ले की उप-शाखा कोकी खेल की है.

सिकंदर-आज़म का पीछे हटना
प्रोफेसर डॉक्टर असलम तासीर अफरीदी ख़ैबर से सटे ओरकज़ई जिले के गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज ग़िलजो के प्रिंसिपल हैं और यहां के इतिहास के जानकार हैं.

उनका कहना है कि ईरान को जीतने के बाद पख्तूनों के गांधारा प्रांत पर विजय का लक्ष्य रखने वाले सिकंदर-ए-आज़म की से’ना’ओं को ख़ैबर दर्रे पर सबसे ज़्यादा प्र’ति’रो’ध का सामना करना पड़ा था और फिर अपनी माँ के कहने पर उन्हें अपना रास्ता बदलना पड़ा था.

वो कहते हैं कि अफरीदी क’बी’लों के इस कड़े प्र”तिरोध के कारणों का पता लगाने के लिए सिकंदर की मां ने उनसे कहा कि इस क्षेत्र के कुछ निवासियों को दावत पर उनके पास भेजा जाये.

अफरीदी क’बी’लों के ये मुखिया सिकंदर-ए-आज़म की मां के साथ बातचीत में लगे हुए थे, जहां उन्होंने उनसे सवाल किया कि आपमें से मुखिया कौन है.

इस पर सभी ने दावा किया कि वही मुखिया है और यह सब आपस में उलझ पड़े. यहीं पर सिकंदर-ए-आज़म की मां को एहसास हो गया, कि जब ये लोग अपनों में से किसी को खुद से बड़ा मानने को तैयार नहीं हैं, तो वे सिकंदर-ए-आज़म को क्या मानेंगे.

मां ने अपने बेटे को सलाह दी कि वह हिन्दुस्तान जाने के लिए ख़ैबर दर्रे के रास्ते का विचार दिल से निकाल दे. इसलिए सिकंदर-ए-आज़म को अपना रास्ता बदलना पड़ा और वो बाजौड़ के रास्ते अपनी मंज़िल की तरफ बढ़े.

वर्तमान पाकिस्तान के इलाक़ों में सिकंदर-ए-आज़म के प्रवेश के संबंध में, एक पूर्व ब्रि’टि’श ग’व’र्न’र सर ओलाफ कारो ने अपनी किताब ‘पठान’ में लिखा है, कि सिकंदर पेशावर में दाखिल नहीं हो सका और उसने जिन नदियों को पार किया वे कोसुसप्ला और गोरिस थीं.

इनके बीच एक पहाड़ी झरना था, जो केवल कोंटर यानी पंज कोड़ा का ऊपरी हिस्सा हो सकता है, जहां से आज डूरंड रेखा गुजरती है और उसने वर्तमान के बाजौड़ के एरी गायों के नवागई का रास्ता लिया.

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