जिला मुख्यालय से छह किमी दूर स्थित गांव घंटेल एक ऐसी इ’बा’रत लिख रहा है, जिसका हर कोई का’य’ल है। करीब छह हजार की आबादी वाले इस गांव में एक भी मु’स्लि’म नहीं है, लेकिन गं’गा-ज’मुनी त’ह’जी’ब को हि’न्दू पूरी शि’द्द’त के साथ स’हे’जे हुए हैं। इस गांव के लोगों में पी’र के प्रति मु’स्लि’म प’रिवारों के समान ही आ’स्था है। इस गांव की पी’र द’र’गा’ह पर हर शुक्रवार को छोटा मेला लगता है जहां पर हिं’दू व दूसरे गांव के मु’स्लि’म आकर म’न्न’तें मां’ग’ते हैं। द’र’गा’ह को संभालने वाले गांव के सं’त’ला’ल महाब्राह्मण ने बताया कि 70 फीट से अधिक ऊंचे टी’ले पर द’र’गा’ह है। लोगों की मान्यता है कि आज भी किसी घर में आग लगती है तो पी’र की कृ’पा दृ’ष्टि से आग कभी दूसरे घर में नहीं फैलती है। गांव में जिस साल बारिश नहीं होती है तो गांव के लोग द’र’गाह के पास हाथ से मिट्टी खोदते हैं। तो कुछ ही दिनों में बारिश हो जाती है।

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गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि एक हजार से अधिक वर्ष पहले हुए किसी यु’द्ध के दौरान पांच यो’द्धा ल’डा’ई के लिए जोधपुर से रवाना हुए। यहां आकर एक यो’द्धा’ यु’द्ध में काम आ गए। जिनकी ये म’जा’र द’र’गा’ह के रूप में आज यहां स्थापित है। दूसरे यो’द्धा की म’जा’र झुं’झु’नूं के न’र’ह’ड़ में है। घं’टे’ल के पी’र न’र’ह’ड़ के पी’र के बड़े भाई थे।

घटने का नाम है घंटेल
गांव के ना’म’क’रण के बारे में लोगों की मान्यता है कि करीब 1700 वर्ष पहले यहां मो’य’ल चौहान आकर बसे थे। उस समय यहां सात बास (मो’हल्ले) होते थे। किसी प्रा’कृ’ति’क आ’प’दा के कारण तीन मोहल्ले ख’त्म हो गए और चार बास रह गए। जो आज भी हैं। बा’स घ’ट’ने पर गांव का नाम घं’टे’ल पड़ा।

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