र’म’ज़ा’न के रोज़े इ’स्ला’म की पाँच बु’नि’या’दों में से एक बु’नि’या’द और सबसे ज्यादा अहम व ज़रूरी अ’ह’का’म में से एक हु’क्म है, जा’न बू’झ’कर र’म’ज़ा’न के रो’ज़े न रखने वाला सही मआना में मु’स’ल’मा’न नहीं है।
सिर्फ़ एक रो’ज़ा रखकर बे वजह तो’ड़ देने की दुनिया में स’ज़ा बदला जिसे क’फ्फ़ा’रा कहते हैं, वह यह है कि एक गु’ला’म आ’ज़ा’द करे या फिर साठ रो’जे लगातार रखे या फिर सा’ठ मि’स’की’नों को दोनो वक़्त का खाना खिलाये और तो’बा करे कु’र’आ’न क’री’म में जगह जगह और सैकड़ो ह’दी’सों में र’म’ज़ा’न के रो’ज़ों का ज़िक्र मौजूद है अगर कोई श’ख़्स र’म’ज़ा’न का सिर्फ़ एक रो’ज़ा जा’न’बू’झ’क’र छोड़ दे और साल के 330 दिन रो’जे रखे तो वह इसका बदला नहीं हो सकते, जिसके फ़’रा’इ’ज़ पूरे न हों उसका कोई न’फ़ि’ल क’बू’ल नहीं है!
र’म’ज़ा’न में रो’जे न रखना तो बहुत बड़ा गु’ना’ह है और स’ख़्त ह’रा’म है लेकिन उनकी फ़’र्जि’य’त का इनकार करना यानि यह कहना कि यह कोई ज़रूरी काम नहीं है कु’फ्र है और यह कहने वाला का-फ़ि’र हो जाता है। ऐसे ही रो’ज़ों की या रो’ज़े’दा’रों की रो’ज़े की वजह से हं’सी उड़ाने म’ज़ा’क बनाने वाला भी मु’स’ल’मा’न नहीं रहता जैसे कुछ लोग कह देते हैं कि रो’ज़ा वह रखे जिसके घर खा’ने को न हो ऐसा कहने वाला इ’स्ला’म से ख़ा’रि’ज हो जाता है ऐसे ही यह मि’सा’ल देना कि न’मा’ज़ पढ़ने गये थे रो’ज़े ग’ले प’ड़ गये यह भी क’ल्मा-ए-कु’फ्र है.