हम हर साल आजादी की पहली लड़ाई लड़ने वालों के बारे में पढ़ते हैं और उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं. लेकिन, उनके बारे में सोचिए जो मौत से बद्तर जिंदगी जी रहे थे. अहमद अली ने अपनी किताब ‘Twilight in Delhi’ में 1911 के दिल्ली दरबार के बारे में लिखा है, जहां जॉर्ज पंचम का कुछ महीने पहले राज्याभिषेक हुआ था. जब जार्ज पंचम और क्वीन मेरी ने लाल-किला छोड़ा तो एक राजसी जुलूस निकला था. इसमें लगभग सारे शहजादे और सम्राट यहां आए.
जब ये काफिला आगे बढ़ रहा था, तभी एक भिखारी बहादुरशाह अपनी बेकार हो चुकी टांगों के सहारे शाहजहानाबाद की गलियों में घिसट रहा था. ये भिखारी कौन था? उसे बहादुर शाह नाम क्यों दिया गया? उत्सुकतावश मैंने इस पर रिसर्च किया कि 14 सितम्बर, 1857 को अंग्रेजों के हाथ में सत्ता आने के बाद और मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद मुगलों का क्या हुआ?
अहमद अली की किताब के अलावा बचे हुए मुगलों पर अंग्रेजी की कोई किताब शायद ही उस स्तर की है, लेकिन 19वीं और 20वीं शताब्दी की उर्दू किताबें इससे भरी पड़ी हैं. ग़ालिब ने खुद इसे दो किताबों में दर्ज किया है. किताबें हैं दास्तानबू और रोजनामचा-ए-ग़दर. ग़ालिब अंग्रेजों के आलोचक नहीं थे. उन्हें अंग्रेजों से संरक्षण और पेंशन की उम्मीद थी. उन्होंने शाहजहानाबाद के उजड़ेपन के बारे में लिखा है.
इसके अलावा इस बारे में ख्वाजा हसन निजामी की किताब ‘बेगमात के आंसू’, ज़ाहिर देहलवी की ‘दास्तान-ए-ग़दर’, मिर्ज़ा अहमद अख्तर की ‘सवानेह दिल्ली’, सैयद वज़ीर हसन देहलवी की ‘दिल्ली का आखिरी दीदार’ और ‘फुगान-ए-दिल्ली’ में ज़िक्र मिलता है. बहुत से उर्दू शायरों ने दिल्ली के सम्राटों के बारे में शोकगीत लिखे हैं.
शहज़ादे के भीख मांगने का ज़िक्र ख्वाजा हसन निजामी (1873-जुलाई 1955) की किताब ‘बेगमात के आंसू’ में मिलता है. उसका नाम मिर्ज़ा नासिर-उल मुल्क था. अंग्रेजों से बचने के बाद उसने शाहजहानाबाद में अपनी बहन के साथ एक व्यापारी के घर में नौकरी कर ली. बाद में जब अंग्रेजों की सरकार बनी, तो दोनों को पांच रूपए महीने की पेंशन मिलने लगी. तब उन्होंने नौकरी छोड़ दी. बाद में पेंशन भी बंद कर दी गई और वो क़र्ज़ में डूब गए.
कुछ सालों बाद एक पीर बाबा, जो दिखने में चंगेज़ के खानदान के लगते थे, चितली कब्र और कमर बंगाश के इलाके में दिखाई देते थे. वो ठीक से चल भी नहीं सकते थे. उनके गले में एक झोला होता था और वो आने-जाने वालों से चुपचाप मदद मांगते थे. जो लोग जानते थे कि वो कौन हैं, वो उनके झोले में कुछ सिक्के डाल देते थे.
किसी ने पूछा वो कौन हैं, तो बताया गया उनका नाम मिर्ज़ा नासिर-उल-मुल्क है और वो बहादुरशाह के पोते हैं. बहादुरशाह ज़फर की बेटी कुरैशिया बेगम का बेटा भी शाहजहानाबाद की गलियों में भीख मांग रहा था, जिसे एक समय साहिब-ए-आलम मिर्ज़ा कमर सुल्तान बहादुर कहा जाता था. वो केवल रातों में निकलता था, क्योंकि दिन में जब उसे जानने वाले उसे देखते थे, तो उसे सलाम करते थे और उन्हें इस बात से शर्म आती थी. मिर्ज़ा सुल्तान भीख मांगते हुए कहते थे, ‘या अल्लाह, मुझे इतना दो कि मैं अपने खाने के लिए सामान खरीद सकूं.’
ख्वाजा हसन निज़ामी ने 1857 की घटनाओं पर बहुत सी किताबें लिखीं हैं, जो लोगों की आंखों देखी हैं. मिर्ज़ा कवैश की बेटियों के बारे में एक और दिल को छूने वाली कहानी मुझे मिली, जिन्हें बहादुर शाह ज़फर का उत्तराधिकारी घोषित किया गया था. ‘बेगमात के आंसू’ में ख्वाजा हसन निजामी ने लिखा कि ये कहानी उन्होंने खुद शहज़ादी से सुनी है.उसका नाम सुल्तान बानो था और वो मिर्ज़ा कवैश बहादुर की बेटी थीं. जब वो ख्वाजा हसन निज़ामी से मिलीं, तब वो 66 साल की थीं, लेकिन उन्हें सब कुछ अच्छे से याद था. निज़ामी ने ‘बेगमात के आंसू’ में इसे ‘शहज़ादी की बिपता’ के नाम से दर्ज किया है. वो बताती हैं:
‘हालांकि, ग़दर हुए 50 साल हो चुके हैं, लेकिन मुझे अब भी साफ़ याद है जैसे ये कल की ही बात हो. तब मैं 16 साल की थी. मैं अपने भाई मिर्ज़ा यावर शाह से दो साल छोटी थी और अपनी बहन नाज़ बानो से छह साल बड़ी थी. हमें अपने भाई यावर शाह से लगाव था. अका भाई के पास बहुत से पढ़ाने वाले थे, जो उन्हें कई विषय और कला के बारे में सिखाते थे. वो उन्हें अरबी, फ़ारसी और तीरंदाजी सिखाते थे. हम कढ़ाई, सिलाई और कई घरेलू काम सीखते थे.
हुज़ूर-ए-वाला को बच्चे पसंद थे, जो उनके साथ नाश्ता करते थे. जिल्ले-सुबहानी को मुझसे लगाव था और मुझे भी उनके साथ नाश्ता करने का मौका मिलता था. हम तब पर्दा नहीं करते थे. अजनबी लोग जनाना महल में बिना किसी हिचकिचाहट के आते थे, लेकिन मैं शर्मीली थी और जब भी किसी अजनबी के सामने आती थी, अपना चेहरा छिपा लेती थी. लेकिन, हमें हुजूर के आदेशों को मानना पड़ता था. हमारे बहुत से चचेरे भाई भी वहां आते थे. सम्राट की मौजूदगी में सबकी नज़रें नीची रहती थीं. कोई भी ऊपर नहीं देखता था और न ही तेज बोलता था.
रिवाज़ के मुताबिक़, हुज़ूर-ए-मौला कुछ बच्चों को पकवान में से कुछ निवाले अपने हाथों से खिलाते थे. चाहे जवान हो या बूढ़ा, उसे झुककर तीन बार सलाम करना पड़ता था. एक दिन मुझे बुलाया गया और हुज़ूर ने एक ख़ास ईरानी पकवान से एक निवाला खिलाया. उन्होंने कहा,”सुल्ताना, तुम सिर्फ अपने खाने पर ध्यान दो. लिहाज़ करना अच्छा है, लेकिन इतना भी नहीं कि तुम दस्तरख्वान से भूखी ही उठ जाओ.”
मैंने उन्हें तीन बार सलाम किया, लेकिन मैं ही जानती हूं कि मैं कैसे वहां गई और वहां से वापस आई. मेरे पैर कांप रहे थे. आह! वो खुशनुमा दिन न जाने कहां चले गए? पता नहीं उस ज़माने को क्या हो गया? हम अपने महलों में ऐसे ही घूमते रहते थे. जिल्ले-सुबहानी की परछाईं हमारे दिमाग में थी और हमें मलिका-ए-आलम कहा जाता था. जिंदगी के उतार चढ़ाव ऐसे ही हैं.
मुझे याद है जब हुज़ूर-ए-मौला को हुमायूं के मकबरे पर गिरफ्तार कर लिया गया था. एक गोरे ने मेरे चचाजान मिर्ज़ा अबू बकर बहादुर को गोली मार दी थी. तब मिर्ज़ा सोहराब उनके पास नंगी तलवार लेकर दौड़े. उन्हें एक दूसरे गोरे ने गोली मार दी और वो भी आह करते हुए चचाजान के शरीर के ऊपर गिर गए. मैं वहां बुत बनी खड़ी थी. ख्वाजा सारा आया और उसने कहा, ”बेगम, आप यहां क्यों खड़ी हैं? आपके अब्बाजान आपको बुला रहे हैं.” मैं उसके पीछे चल दी.
नदी के दरवाजे के पास मेरे अब्बाजान, मिर्ज़ा कवैश बहादुर एक घोड़े पर थे. खुले सिर और परेशान. अब्बाजान का सर धूल और तिनकों से भरा था. वो चिल्लाने लगे और उन्होंने कहा, ”खुदा हाफिज सुल्ताना, मैं भी तुम लोगों को छोड़कर जा रहा हूं. मेरी जिंदगी का तारा, मेरा बेटा, उसे एक सैनिक ने मेरी आंखों के सामने मार दिया.” मैं तेजी से चीखी, ”अरे मेरे भाई यावर.”
उन्होंने मुझे और नाज़ बानो को शांत कराया और कहा, ”बेटी, अब गोरे मुझे खोज रहे हैं. मुझे नहीं पता मैं कितनी देर तक बच पाऊंगा. माशाअल्लाह आप लोगों के सामने उम्र पड़ी है. अल्लाह पर भरोसा रखो. मुझे नहीं पता हममें से किसके साथ क्या होगा. मैं तुम लोगों को छोड़ना नहीं चाहता, लेकिन एक दिन तुम लोग अनाथ हो जाओगी. नाज़ बानो अभी बच्ची है. उसका ख्याल रखना और अच्छे से रहना.”
”नाज़ बानो अब तुम शहज़ादी नहीं रही. कोई मांग मत करो. सिर्फ अल्लाह को शुक्रिया कहो और जो मिले वो खा लो. अगर कोई खा रहा है, उसकी तरफ मत देखो, वरना लोग कहेंगे ये शहजादियां लालची हैं. उन्होंने हमें ख्वाजा सारा के हवाले कर दिया और कहा,” इन्हें वहां ले जाओ, जहां हमारे परिवार के बाकी लोग हैं.”
उन्होंने हमें गले लगाया और अपना घोड़ा जंगल की तरफ दौड़ा दिया. ये आखिरी मौक़ा था, जब हमने उन्हें देखा और हमें कोई अंदाज़ा नहीं इसके बाद उनके साथ क्या हुआ. ख्वाजा सारा हमारे परिवार का पुराना नौकर था और वो हमारे साथ था. नाज़ बानो कुछ देर तक चलती रही, लेकिन जल्द ही उसके पैर थक गए. वो रोने लगी. मैं खुद कभी इतना नहीं चली थी, लेकिन किसी तरह मैं चलती रही और बानो को पकड़े रही. हम उन गलियों से गुजरे, जहां हम कभी हाथियों से चलते थे.
नाज़ बानो के पैर में एक कांटा चुभ गया और वो गिरकर रोने लगी. मैंने उसे उठाया और कांटा निकालने की कोशिश की. ख्वाजा सारा चुपचाप खड़ा देखता रहा और उसने हमसे जल्दी चलने को कहा. नाज़ ने कहा, ”आपाजान, मैं अब और नहीं चल सकती. इससे कहो न हमारे लिए पालकी ले आए.” मैं उसके आंसू पोछकर उसे शांत कराने लगी. मुझे लगा मेरा दिल ग़म के मारे फट जाएगा. ख्वाजा सारा ने रूखे होकर कहा, ”बस बहुत हो गया. अब चलो.”
नाज़ बानो अच्छी लड़की थी और नौकरों का सम्मान करती थी. उसने ख्वाजा सारा को डांट लगाई. उस कमीने आदमी ने तैश में आकर शहज़ादी को थप्पड़ मार दिया. बानो झटके से गिर गई. कभी किसी ने उस पर हाथ नहीं उठाया था. यहां तक कि मैं भी उसके साथ रोने लगी. ख्वाजा हम दोनों को रोता हुआ छोड़कर चला गया. हम किसी तरह हज़रत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह तक पहुंचे.
हमारे परिवार समेत हजारों लोगों ने वहां पनाह ले रखी थी. सब परेशान और डरे हुए थे. कोई एक-दूसरे से कुछ नहीं बोल रहा था. ग़दर के समय ही महामारी फ़ैल गई, जिसने मेरी बहन की जान ले ली. अब मैं एकदम अकेली थी. बाद में दिल्ली में अमन लौट तो आया, लेकिन मेरे लिए कोई अमन न था. अंग्रेज सरकार ने पांच रुपए महीने की पेंशन मुक़र्रर कर दी, जो आज भी मुझे मिलती है.”