इ’स्ला’मि’क मा’ह र’म’जा’न मु’स’लमानों का सबसे प’वित्र महीना है। इस माह में पूरे महीने इबादत की जाती है और अ’ल्ला’ह से अपने गु’ना’हों की मा’फी मांगी जाती है। पूरे महीने दिन भर भूखे रहकर रो’जा रहा जाता है। शाम के वक्त म’ग’रि’ब की अ’जा’न (शाम की न’मा’ज) होने पर रोजेदार खजूर, शरबत, फिल व दूसरे पकवान खाकर रोजा इफ्तार करते हैं। बे’त’हा’शा गर्मी में है ऐसे में फेसबुक और दूसरे सोशल माध्यमों पर यह सवाल खूब पूछे जा रहे हैं कि रो’जा रखना किस पर फर्ज है और किसे इससे छूट है। यहां यह बताना भी जरूरी है कि इस बार के रोजे 15 घंटे से अधिक देरी के है। पहला रोजा 15 घंटे एक मिनट का है तो आखिरी रोजा 15 घंटा 10 मिनट का है यूं तो र’म’जा’न के रोजे हर मु’स’ल’मा’न चाहे वह औरत हो या म’र्द सब पर फर्ज यानि जरूरी है। पर इसमें भी कुछ शर्ते हैं।
इन लोगों पर रोजा फर्ज है
– जो लोग शारिरिक व मानसिक रूप से बिल्कुल सेहतमंद हों।
– बा’लि’ग पर रोजा रखना फर्ज है।
– 14 साल के बच्चों को रोजा रखने के लिेय तैयार करना चाहिये ताकि आगे चलकर उसे परेशानी न हो।
– अपने शहर में हों, अपने फार्म पर, अपने कारखाने या फिर अपने घर में हों तो रोजा फर्ज है। अगर सफर की हालत में न हों तो भी रोजा फर्ज है।
– अगर रोजा रखने से कोई शारिरिक या मानसिक क्ष’ति न पहुंचती हो तो रोजा फर्ज है, लेकिन भूख प्यास की शर्त इसमें शामिल नहीं।
इन पर फर्ज नहीं है रोजा
– ना’बा’लिग और बच्चों पर रोजा फर्ज नहीं।
– ऐसा व्यक्ति जो मानसिक रोगी हो या फिर वह जिसकी जेहनी हालत ऐसी हो कि उसका किसी काम पर कोई पकड़ न हो।
– रोजा रखने में असमर्थ हो चुके मर्द-औरतें।
– ऐसे लेागों को गरीब को पूरे दिन का भरपेट खाना या उसकी कीमत बदले के तौर पर देनी होगी।
– अगर रोजा रखने से बी’मा’री प्र’भा’वि’त हो रही हो तो छूट है। पर बाद में इसके बदले में स्वस्थ्य हो जाने पर रोजा रखना होगा।
– जिस मुसाफिर का सफर 50 मील या उससे अधिक का हो तो उसे छूट है।
– जिन औरतों के बच्चे न’व’जा’त हों और मां का ही दूध पीते हों उन्हें भी रोजे से छूट है।
– महिलाओं के मा’सि’क ध’र्म के समय (ज्यादा से ज्यादा 10 दिन तक) रोजे से छूट है।
– जिन औरतों की डि’ली’व’री होने वाली हो उन्हें भी निश्चित वक्त के लिये रोजा मा’फ है।
जो शख़्स बुढ़ापे की वजह से इतना कमजोर हो गया कि उसमें रोज़ा रखने की ताकत नहीं और आइंदा सही होने की भी कोई उम्मीद नहीं उस पर रोज़े माफ हैं। लेकिन हर रोज़े के बदले फ़ि’दया देना उस पर वाजिब है। और फिदया यह है कि हर रोज़े के बदले एक मो’ह’ता’ज को दोनों वक़्त पेट भरकर खाना खिलायें या हर रोज़े के बदले स’द’क़ा-ए-फ़ि’त’र के बराबर ग’ल्ला या रू’प’या ख़ै’रा’त करे। जो ज़्यादा सही तहकीक के मुताबिक तकरीबन 2 किलो 45 ग्राम गेहूँ है।